भारतीय संस्कृति में गृहस्थ आश्रम से वानप्रस्थ लेने के लिए कहा जाता है कि गृहस्थ में रहते हुए धीरे धीरे आसक्ति को कम करना चाहिए और फिर वैराग्य का तीव्र वेग आने पर वन गमन करना चाहिए। 

गृहस्थ आश्रम जैसे विचार, व्यवहार और आचरण आगे के आश्रमों में नही होते ।

आजकल कॉरपोरेट जगत/व्यापार से निकलकर अनेक लोग spiritual organisation में (अनेक कारणों से विचार कर इसको अध्यात्म नहीं लिखा है), अथवा अन्य स्वरूपों में कार्य करने आते है।

लेकिन एक विकट समस्या उनको घेर लेती है। 

वो तो कॉरपोरेट से बाहर आ गए, लेकिन उनके अंदर से कॉरपोरेट बाहर नहीं जाता। वहां के संस्कार चित्त की गहराइयों तक प्रवेश कर जाते है, जिनको भस्म करके सेवा क्षेत्र में आना होता है, जैसा कि वानप्रस्थ में करना होता है।

They leave corporate, but corporate does not leave them. 

Did this story remind you of Vikram Betal? Or the story of Trishanku who wanted to goto swarg with earthly body?